Unwarranted Restrictions on Competition

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प्रतिस्पर्धा पर बेजा पाबंदी

May 11, 12:15 am

आउटसोर्सिंग करने वाली अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मिल रही कर रियायतें खत्म करने का अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का प्रस्ताव निराश तो करता है, लेकिन चौंकाता नहीं। ओबामा और उनकी सहयोगी हिलेरी क्लिंटन चुनावों से बहुत पहले से आउटसोर्सिंग का मुखर विरोध करते आए हैं। आउटसोर्सिंग के संदर्भ में उनके ताजा प्रस्ताव न सिर्फ मौजूदा वैश्विक आर्थिक माहौल के प्रतिकूल हैं, बल्कि इस बात में भी संदेह है कि उनसे नई नौकरियों का सृजन होगा या कर राजस्व में कोई विशेष वृद्धि होगी। आईटी समर्थ सेवाओं से जुड़ा काम भारत तथा अन्य देशों की आउटसोर्सिंग कंपनियों को भेजे जाने से कुछ अमेरिकी कंपनियों के हित प्रभावित होते हैं, लेकिन दूसरी ओर वहीं की बहुराष्ट्रीय आईटी कंपनिया इससे लाभान्वित भी होती हैं। अमेरिकी सरकारें दो मुद्दों को लेकर शुरू से प्रतिबद्ध रही हैं- पहला, अमेरिकी कंपनियों के विश्वव्यापी आर्थिक हितों की सुरक्षा और दूसरा, नए रोजगारों का सृजन, लेकिन यहा दोनों लक्ष्यों में विरोधाभास है और एक को प्रसन्न करने का अर्थ दूसरे को रुष्ट करना है। अमेरिकी राष्ट्रपति मौजूदा कर ढाचे को लेकर ‘अचंभित’ हैं, जो बेंगलूर में नौकरिया पैदा करने वाली कंपनियों को अमेरिकी शहर में ऐसा करने वाली कंपनियों की तुलना में कम कर देने की सुविधा देता है। ओबामा को अपने देश के आर्थिक हितों के अनुरूप सोचने और कदम उठाने का पूरा हक है, लेकिन वह इस तथ्य को भूल रहे हैं कि आउटसोर्सिंग वस्तुत: मंदी के इस दौर में अमेरिका के लिए लाभ का सौदा है। आउटसोर्सिंग उसकी कारोबारी बुद्धिमत्ता का उपक्रम और राष्ट्रीय बचत का जरिया है। यह मुद्दा सिर्फ नौकरिया पैदा करने तक सीमित नहीं है। मुद्दा अमेरिकी कंपनियों के प्रतिस्पर्धी बने रहने का भी है। भारत से मिली सस्ती सेवाओं का लाभ उन्हें अन्य देशों की आईटी कंपनियों से होड़ लेने की क्षमता प्रदान करता है। आउटसोर्सिंग के माध्यम से वे सुशिक्षित और कुशल भारतीय आईटी विशेषज्ञों की सेवाओं को बेहद कम कीमत पर हासिल कर पाती हैं। ऐसा न होता तो इस मामले में भारत इतना लोकप्रिय न होता।

अमेरिका में भारतीय आउटसोर्सिंग को लेकर कई गलतफहमिया पैदा की जाती हैं, जैसे इस क्षेत्र का अधिकाश काम भारतीय कंपनियों बटोर लेती हैं। इसके विपरीत हकीकत यह है कि विश्व के आउटसोर्सिंग कारोबार में भारत की हिस्सेदारी पाच-छह फीसदी से अधिक नहीं है। वैसे भी आउटसोर्सिंग कोई भारतीय कंपनियों की इच्छा से या भारत में रोजगार पैदा करने के उद्देश्य से शुरू नहीं हुई है। यह पश्चिमी दुनिया में जन्मी और पनपी अवधारणा है, जिसका सर्वाधिक लाभ भी उसी को मिल रहा है। भारतीय युवकों को रोजगार मिलना तो इस प्रक्रिया का एक सह-उत्पाद मात्र है। इस प्रक्रिया में कोई रुकावट आती है तो उसका नुकसान भी भारतीय कंपनियों की तुलना में खुद अमेरिकियों को अधिक होगा। कारण, आउटसोर्सिंग की प्रक्रिया विशुद्ध कारोबारी नफा-नुकसान पर आधारित है। कारोबारी चाहे अमेरिका में हो या एशिया में, चाहे आईटी के क्षेत्र में हो या मैन्यूफैक्चरिंग में, अपने खचरें को घटाना और मुनाफा बढ़ाना उसकी पहली प्राथमिकता है। वह आगे भी बनी रहेगी। ओबामा के बयान में कुछ बातें पढ़ने की कोशिश की जा सकती है। पहली, वह कर राजस्व में बढ़ोतरी करने के लिए उत्सुक हैं। इसका संकेत उन्होंने अमेरिका के सर्वाधिक धनी दो प्रतिशत लोगों पर कर कटौतिया समाप्त करने का फैसला करके दिया है। अमेरिका में आउटसोर्सिंग पर होने वाले खर्च को सामान्य खर्च में गिना जाता है और उस पर कारपोरेट टैक्स नहीं लगता। यानी 35 फीसदी तक की बचत। ओबामा 2011 तक करों की यही बचत खत्म करना चाहते हैं। इससे कंपनियों का खर्च 35 फीसदी बढ़ जाएगा। बराक ओबामा का मानना है कि इससे आउटसोर्रि्सग करने वाली अमेरिकी कंपनियां हतोत्साहित होंगी, जबकि वास्तव में ऐसा होगा नहीं।

भारतीय सेवाओं में होने वाली 70-75 फीसदी की बचत के साथ तुलना करके देखें तो कर अदा करने के बाद भी अमेरिकी कंपनिया लाभ में बनी रहेंगी। भारत सरकार अगर इन कंपनियों को नई आर्थिक रियायतें और सुविधाएं दे देती है तो नुकसान और भी कम रह जाएगा। अपने विशाल मुनाफे को विदेशों में रखने वाली कंपनियों के लिए भी ओबामा का संदेश स्पष्ट है। वह चाहते हैं कि इस धन को भी अमेरिकी करों के दायरे में लाया जाए। यह उनकी जायज चिंता है। अगर अमेरिकी कंपनिया विदेशों में करमुक्त रहते हुए अमेरिकी करों से बच रही हैं तो अपने कारपोरेट टैक्स ढाचे को दुरुस्त करने तथा कर-अपवंचना को रोकने का उन्हें पूरा अधिकार है। ओबामा को नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिकी कंपनियों की प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति कमजोर होने या उनका विदेशी निवेश सीमित होने का लाभ उनके यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों को मिलेगा।

ताजा घटनाक्रम से भारतीय आईटी आउटसोर्सिंग कंपनियों के कारोबार पर तात्कालिक दुष्प्रभाव पड़ने की आशका नहीं है। अलबत्ता, ओबामा ने एक दीर्घकालीन और नीतिगत संदेश जरूर दिया है कि उनकेप्रशासन की सोच बुश प्रशासन जैसी लचीली नहीं है। वह मंदी से निपटने के लिए ऐसे संरक्षणात्मक कदम उठाने को भी तैयार हैं जो वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था के अनुकूल नहीं हैं। भारतीय कंपनियों को भी अपना दायरा बढ़ाने की जरूरत है। आखिर क्यों हम सिर्फ अमेरिका और इंग्लैंड की कंपनियों तक सीमित रहें? जापान, खाड़ी देशों, आस्ट्रेलिया, अन्य यूरोपीय देशों में अपने कारोबार का विस्तार क्यों न करें? घरेलू बाजार का विस्तार करने पर ध्यान क्यों न दें? फिर आउटसोर्सिंग भी सिर्फ आईटी तक सीमित क्यों रहे? इसे मैन्यूफैक्चरिंग, स्वास्थ्य, इंजीनियरिंग, सिनेमा, शिक्षा, मार्केटिंग, मीडिया, वित्ता, कानून और ऐसे ही दूसरे क्षेत्रों तक आगे क्यों न बढ़ाया जाए? भारत सरकार और हमारी आईटी कंपनिया चाहें तो इस समस्या को सकारात्मक ढंग से लेकर एक अवसर में बदल सकती हैं।

[बालेंदु दाधीच: लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

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