ओबामा की बड़ी पहल
5 Jun 2009, 2300 hrs IST,नवभारत टाइम्स
काहिरा यूनिवर्सिटी में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का ऐतिहासिक भाषण मुस्लिम विश्व में बनी अमेरिका की खलनायक छवि को तोड़ने वाला साबित होगा या नहीं, इस सवाल पर घोर अमेरिका विरोधी हलकों में भी बातचीत शुरू हो गई है। ओबामा एक समझदार राजनेता के अलावा अच्छे लेखक और शानदार वक्ता भी हैं। कुरान शरीफ के उद्धरणों से लैस उनके भाषण से राजनीतिक परिपक्वता के अलावा उनकी सांस्कृतिक संवेदनशीलता की भी झलक मिली। इससे इस्लाम और अमेरिका के बीच खड़ी होती चली गई संवेदनहीनता की दीवार पर एक चोट जरूर पड़ी है, लेकिन सीरिया से इंडोनेशिया तक और चेचन्या से सूडान तक मुसलमानों में अमेरिका के खिलाफ जो नफरत घर कर गई है, उसे दूर करने के लिए दसियों साल की कूटनीतिक कोशिशों की जरूरत पड़ेगी।
नब्बे के दशक में अमेरिकी चिंतक सैम्युअल हंटिंगटन ने सभ्यताओं के संघर्ष की जो थीसिस पेश की थी उसमें आधुनिक सभ्यता, कन्फ्यूशियनिज्म और इस्लामी सभ्यता के बीच के टकराव को शीतयुद्धोत्तर दुनिया का मुख्य प्रेरक तत्व बताया गया था। अमेरिकी हुकूमत ने हमेशा इस थीसिस का खंडन किया और कहा कि इससे उसका दूर का भी रिश्ता नहीं है। लेकिन इक्कीसवीं सदी की शुरुआत ही वर्ल्ड ट्रेड टॉवर के विध्वंस और अफगानिस्तान-इराक पर अमेरिकी हमले के साथ हुई और फलस्तीनी मसले पर बुश ने खुल कर इस्राइल के साथ खड़े होते हुए समझौते की सारी पुरानी कोशिशों को कूड़ेदान में डाल दिया। इससे दुनिया भर के मुसलमानों में न सिर्फ अमेरिका की अन्यायी छवि बनी, बल्कि संयुक्त राष्ट्र समेत तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं पर से उनका भरोसा भी उठ गया।
उन्होंने खुद को सभ्यताओं के संघर्ष जैसी ही घेराव की स्थिति में महसूस किया, जहां उनकी तकलीफ को तार्किक ढंग से देखने-सुनने वाला कोई था ही नहीं। अलकायदा जैसे कट्टरपंथी आतंकवादी संगठनों के लिए यह मुंहमांगी मुराद पूरी होने जैसा था। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से निजात पाना अमेरिका के लिए ही नहीं, इस्लाम के लिए भी जरूरी है। यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि अस्सी के दशक से, यानी ईरान की इस्लामी क्रांति के ठीक बाद से ही अमेरिका सऊदी अरब के वहाबी इस्लाम जैसी सबसे पिछड़ी और कट्टरपंथी धारा के साथ खड़ा होकर इस धर्म की उदार जनतांत्रिक धाराओं को दरकिनार करता नजर आया है। यहां तक कि बिल क्लिंटन का 8 सालों का डेमॉक्रेटिक दौर भी इसका अपवाद नहीं था।
मुसलमानों को संबोधित करने के लिए सऊदी राजधानी रियाद का कोई मंच चुनने के बजाय अरब दायरे की सबसे पुरानी शैक्षिक संस्था काहिरा यूनिवर्सिटी को चुनना यह बताता है कि ओबामा अमेरिकी कूटनीति के उस चार दशक पुराने ढांचे को बदलना चाहते हैं। खासकर इसाइल द्वारा फलस्तीनी इलाकों में नई बस्तियां बसाने को खुले तौर पर गलत बताना और इस्लामी दायरे में लड़कियों को कम मान दिए जाने को मुद्दा बनाना, इस वितर्क के साथ कि उनका पर्दा रखना उन्हें किसी भी मायने में कमतर नहीं बनाता, यह बताता है कि ओबामा का इरादा इस्लामी दायरों में घुस कर काम करने का है, हवाई बातें कह कर किनारे से निकल जाने का नहीं। यह एक शानदार शुरुआत है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मुस्लिम समाज अपनी ओर से कोई पहल करने से पहले शायद ओबामा के कुछ शब्दों के हकीकत में बदलने का इंतजार करे।
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