A Promise for the Future: Hoping for Obama’s Success

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ओबामा की सफलता की कामना करिए

आतंकवाद के बाद अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की प्राथमिकता में सबसे ऊपर नाभिकीय अस्त्र ही हैं। राष्ट्रपति बनने के बाद से ही वे नाभिकीय निरस्त्रीकरण की बात कर रहे हैं। एक वर्ष की तैयारी के बाद ओबामा प्रशासन की सामने आई नाभिकीय-नीति में कहा गया है कि अमेरिका उन देशों के खिलाफ न नाभिकीय अस्त्रों का प्रयोग करेगा और न इनकी धमकी ही देगा, जिनके पास नाभिकीय अस्त्र नहीं हैं। भले ही वे देश अमेरिका पर रासायनिक या जैविक अस्त्रों से हमला करें या इसकी धमकी दें। हां, इसमें एक शर्त जरूर लगी है। अमेरिका की यह घोषणा तभी तक कायम रहेगी, जब तक वे देश अप्रसार संधि का पालन करते रहेंगे।

इसके पहले पिछले वर्ष पांच अप्रैल को जब ओबामा ने प्राग में अमेरिका व रूस द्वारा नाभिकीय अस्त्रों में भारी कटौती का ऐलान किया था, तो यकीन करना कठिन था कि वे वाकई इनमें कटौती करेंगे, पर अब आठ अप्रैल को प्राग में ही ओबामा एवं रूसी राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव के बीच शस्त्र कटौती संधि पर हस्ताक्षर हो चुके हैं। इनमें कटौती हो सके, तो विश्व के लिए इससे ज्यादा राहत की बात और क्या हो सकती है। आखिर, नाभिकीय अस्त्र युद्ध के नहीं, महाविनाश के अस्त्र हैं। विश्व में अमेरिका एकमात्र ऐसा देश है, जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान इस महाविनाशकारी आयुध का प्रयोग किया था और इस समय भी नाभिकीय अस्त्रों की संख्या, मारक क्षमता व नीतियों की दृष्टि से विश्व का नेतृत्व उसके ही हाथों में है। अतः ओबामा की घोषणाओं का महत्व है। यह भी न भूलिए कि ओबामा के इरादों का संकेत मिलते ही अमेरिका के नाभिकीय अस्त्रों से जुडे संस्थानों ने इसके विरुद्ध लॉबिंग आरंभ कर दी है। वहां की दोनों पार्टियों के एक वर्ग द्वारा भी ओबामा की आलोचना की जा रही है। रूस-अमेरिका कटौती संधि पर विरोधियों की प्रतिक्रिया है कि ओबामा ने अमेरिका की सुरक्षा खतरे में डाल दी है।

अब जरा इस समय की वैश्विक स्थिति पर भी नजर डालें। ऐसी विश्व व्यवस्था, जिसमें नाभिकीय अस्त्रों की क्षमता आपकी महाशक्ति पदवी का मूल पैमाना हो, जहां आतंकियों के हाथों में नाभिकीय अस्त्र पडने का खतरा भी मंडरा रहा हो, वहां नाभिकीय अस्त्रों में कटौती और भविष्य में इनके विकास-निर्माण से संपूर्ण परहेज का वादा एकदम छोटा तो नहीं कहा जा सकता। वहीं, उत्तर कोरिया व ईरान के नाभिकीय मंसूबों के कारण इनके पडौसियों के अंदर भी उस दिशा में बढने की चाहत कुलबुलाने लगी है।

इसमें अमेरिका जैसा देश, जिसका मनोविज्ञान स्वयं को एकमात्र महाशक्ति मानने व विश्व पर अपना वर्चस्व बनाए रखने का हो, वहां इस नीति को भविष्य की दृष्टि से आशाजनक तो माना ही जा सकता है। रूस के साथ संधि के अनुसार दोनों देश 1550 से ज्यादा अस्त्र व 700 से ज्यादा प्रक्षेपास्त्र नहीं रखेंगे। इसके प्रति इनमें प्रतिबद्धता है, तभी तो ये इनकी निगरानी की व्यवस्था पर सहमत हुए हैं।

ओबामा नाभिकीय परीक्षणों पर प्रतिबंध संधि यानी सीटीबीटी के अनुमोदन के लिए भी बातचीत कर रहे हैं। निस्संदेह भारत की नीतियों की दृष्टि से यह अनुकूल नहीं है। भारत तो सीटीबीटी को अन्यायपूर्ण भी मानता है और यह है भी। यानी, ओबामा के कदमों से जहां हमारी नाभिकीय कूटनीति के लिए चुनौतियां बढी हैं, तो वहीं महाविनाश के खतरे के अंत की भी आधारभूमि बनी है। इसीलिए तो हमें भी इसका स्वागत करना चाहिए। हां, सीटीबीटी के खिलाफ माहौल बनाने में भारत पीछे न रहे, पर उसको ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए, जिससे ओबामा की मुहिम को धक्का लगे।

–अवधेश कुमार

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