America Is Mad at Pakistan

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कश्मीरी लॉबिस्ट ग़ुलाम नबी फ़ाई की अमरीका में हुई गिरफ़्तारी पर कई लोगों का कहना है कि उनकी गिरफ़्तारी की मुख्य वजह अमरीका और पाकिस्तान के रिश्तों में आई खटास है और ये भारत से किसी विशेष प्रेम का नतीजा नहीं है.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर कमल मित्रा चेनॉय के मुताबिक अमरीका संदेश दे रहा है कि वो पाकिस्तान से नाराज़ है.

सवाल ये है कि जब सालों से अमरीकी खुफ़िया एजेंसी एफ़बीआई फ़ाई के बारे में जानकारी इकट्ठा कर रही थी तो अभी हुई गिरफ़्तारी का क्या मतलब है.

सालों से फ़ाई अमरीका में कश्मीर पर सम्मलेन आयोजित करते आए हैं. इस सम्मेलन में भारत की ओर से वरिष्ठ पत्रकारों और दूसरे जाने-माने लोगों ने हिस्सा लिया है. पत्रकार वेद भसीन, जस्टिर राजिंदर सच्चर, प्रोफ़ेसर अंगना चैटर्जी, रीता मनचंदा, पत्रकार विक्टोरिया स्कॉफ़ील्ड, कुलदीप नय्यर इस सूची में शामिल हैं.

कश्मीर से सालों से रिपोर्टिंग कर रहे बीबीसी संवाददाता शुबोजीत बागची के मुताबिक भारतीय खुफ़िया एजेंसी के लोग उन्हें फ़ाई के पाकिस्तान से कथित नज़दीकी रिश्तों के बारे में बताते रहे हैं और उनकी शिकायत भी रही है कि जानकारी होने के बावजूद अमरीका उनके खिलाफ़ कार्रवाई नहीं कर रहा.

‘राई का पहाड़’

मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा फ़ाई के ख़िलाफ़ आरोपों से आश्चर्यचकित तो हैं, लेकिन वो फ़ाई को आसान लक्ष्य बताते हैं.

अमरीकी चुनाव प्रचारों में फ़ाई द्वारा 21,000 डॉलर खर्च करने के आरोपों पर गौतम नवलखा कहते हैं, “हम राई का पहाड़ बना रहे हैं. क्या आप अमरीका में 21,000 डॉलर में किसी सेनेटर को खरीद सकते हैं. कोई अगर ये सोचता है कि बीस साल में चार मिलियन डॉलर खर्च करके आप कश्मीर पर अमरीकियों का मन बदल देंगे तो हम सच्चाई से दूर चले गए हैं.”

कश्मीरी अमरीकी काउंसिल जैसी संस्थाएँ यूरोपीय संसद और अमरीकी कांग्रेस जैसी प्रभावशाली मंचों में जनमत तैयार करने काम करती हैं. और अगर कोई संस्था जिसमें बड़े भारतीय और अमरीकी नाम शामिल है, पाकिस्तान के दृष्टिकोण के नज़दीक है, तो भारत के लिए ये चिंता का विषय है.

वाशिंगटन में बीबीसी संवाददाता रहे ज़ुबैर अहमद कश्मीरी अमेरिकन काऊंसिल के कश्मीर सम्मेलन में हिस्सा ले चुके हैं. वो कहते हैं कि सम्मेलन में ज़्यादातर वक्ता कश्मीर पर पाकिस्तानी दृष्टिकोण के ज़्यादा नज़दीक लग रहे थे जिस पर कुलदीप नय्यर और जस्टिस सच्चर ने आपत्ति भी जताई थी.

वो कहते हैं, ” सम्मेलन में प्रस्ताव पारित होने के वक्त कुलदीप नय्यर और जस्टिस सच्चर ने आपत्ति भी जताई थी कि इसमें पाकिस्तान की ओर झुकाव ज़्यादा है. बाद में उनके बोलने पर प्रस्ताव में कुछ बदलाव किए गए.”

ज़ुबैर के मुताबिक जब उन्होंने फ़ाई से सम्मेलन के पाकिस्तानी नज़रिए के ज़्यादा नज़दीक होने पर बात की थी तो उनका कहना था कि बुलावों के बावजूद भारतीय पत्रकार और दूतावास के लोग सम्मेलन में नहीं आते और ‘उन्हें भी कभी-कभी लगता है कि पाकिस्तान और आज़ाद कश्मीर के समर्थक सम्मेलन को हाईजैक कर लेते हैं.’

सम्मेलन में हिस्सा

उधर गौतम नवलखा कहते हैं कि अगर उन्हें पता होता कि सम्मेलन का खर्चा आईएसआई उठा रही है तो वो सम्मेलन में हिस्सा नहीं लेते क्योंकि जिन मुद्दों को लेकर वो काम कर रहे हैं, उन पर सरकार से दूरी बनाकर रखना ज़रूरी होता है नहीं तो काम पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है.

वरिष्ठ पत्रकार और कश्मीर समस्या के समाधान के लिए सरकार की ओर से बातचीत कर रहे दिलीप पदगांवकर और जवाहरलाल विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर कमल मित्रा चेनॉय भी कह चुके हैं कि अगर उन्हें सम्मेलन के खर्च के बारे में पता होता, तो वो इसमें हिस्सा नहीं लेते.

लेकिन कश्मीर टाईम्स के वेद भसीन कहते हैं कि अगर उन्हें किसी भी प्लेटफ़ार्म से अपनी बात कहने का मौका मिलेगा तो वो करेंगे.

वे कहते हैं, “इन सम्मेलनों में भी एक तरफ़ के लोग ज़्यादा आते थे, और इससे फ़र्क पड़ता है, लेकिन हमें भी अपनी बात कहने का मौका मिलता है.”

भसीन आगे कहते हैं, “मैं बहुत सारे सम्मेलनों में जाता हूँ. हमने कभी ये नहीं पूछा कि उसकी फंडिंग कौन करता है. आपको अगर कोई खाने के लिए बुलाए तो आप ये नहीं पूछते कि मटन और गोश्त कहाँ से लाए हैं. भारतीय एजेंसियों की ओर से भी कई सम्मेलन बुलाए जाते हैं. हमने कई बार उनमें भी हिस्सा लिया है. अमरीका ने ये कदम पाकिस्तान पर ऐसे वक्त दबाव डालने के लिए किया है जब उसके पाकिस्तान से रिश्ते बिगड़ रहे हैं.”

भसीन कहते हैं कि सालों पहले जब वो पहली बार सम्मेलन में हिस्सा लेने गए थे तो उन्होंने फ़ाई से संस्था को मिलने वाले धन के बारे में पूछा था तो उन्हें बताया गया था कि विभिन्न देशों में रहने वाले कश्मीरी अमेरिकन काउंसिल के करीब 2000 सदस्य आर्थिक मदद दे रहे थे.

भसीन कहते हैं कि मात्र आरोपों के आधार पर किसी के चरित्र की हत्या करना गलत है.

भसीन कहते हैं कि ये कहना गलत होगा कि ऐसे सम्मेलनों में जाने से भारतीय सहभागियों की सोच पर असर पड़ता है और वो आगे भी विभिन्न मंचो पर भारत-पाकिस्तान दोस्ती की बात करते रहे हैं.

उधर नवलखा के मुताबिक अगर किसी प्रस्ताव में भारत की आलोचना हुई है तो ये कहना गलत होगा कि सम्मेलन भारत-विरोधी है.

वो कहते हैं, “पिछले 21-22 साल से कश्मीर में सेना का दमन रहा है तो ज़ाहिर है कि केंद्र भारतीय कश्मीर ही रहेगा. इसमें ताज्जुब की क्या बात है. आंदोलन तो यहाँ चल रहा है.”

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