Why Did We Fall for America's Trap?

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हिलेरी क्लिंटन की भारत-यात्र के दौरान गुलाम नबी फई की गिरफ्तारी भी नाटक ही मालूम पड़ी। फई वाशिंगटन में कश्मीर-अमेरिकन कौंसिल चलाता है। उसे आईएसआई ने करीब 20 करोड़ रुपए चोरी-छिपे दिए हैं, ऐसा अमेरिकी पुलिस का आरोप है, पर यह किसे पता नहीं है कि ‘कश्मीर का झंडा’ उठाने वाले इस आदमी को सभी अमेरिकी सरकारों का वरद्हस्त प्राप्त रहा है। सभी अमेरिकी राष्ट्रपति इस कौंसिल को शुभकामनाएं भेजते रहे हैं और रिपब्लिकन व डेमोक्रेटिक पार्टियों के दर्जनों सीनेटर इसके अधिवेशनों में भाग लेते रहे हैं। इस कौंसिल पर अमेरिकी सरकार ने अब इसलिए हाथ नहीं डाला कि वह कश्मीर पर भारत के साथ हो गई है। इसका मूल कारण यह हो सकता है कि वह उस पाकिस्तान सरकार को डराना चाहती है, जो अपने यहां सीआईए के एजेंटों को तंग कर रही है। अत: भारत को फिजूल में खुश नहीं होना चाहिए।

हां, हिलेरी की भारत-यात्र के मौके पर पाक सरकार की इससे बहुत बुरी भद्द पिट गई है। इससे यह भी पता चलता है कि भारत के साथ सामरिक संवाद चलाने का दावा करने वाली अमेरिकी सरकार का आईएसआई से कितना गहरा संबंध है। लगता है कि हिलेरी किसी सामरिक संवाद के लिए नहीं, बल्कि अमेरिका के व्यापारिक हितों को साधने के लिए भारत आई थीं। अभी-अभी भारत ने अरबों रुपए के अमेरिकी जहाजों को अपनी खरीद-सूची से बाहर कर दिया है। इसके अलावा जो परमाणु-संयंत्र भारत के गले अमेरिका मढ़ना चाहता है, उनका सौदा भी खटाई में पड़ गया है, क्योंकि परमाणु सप्लायर्स ग्रुप ने नया अडं़गा डाल दिया है। ग्रुप ने अपनी ताजा बैठक में तय किया है कि जिन राष्ट्रों ने परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत नहीं किए हैं, उन्हें कोई भी ग्रुप का सदस्य कोई ऐसी तकनीक या उपकरण नहीं देगा, जो परमाणु बम बनाने में मददगार हो सके। हिलेरी इस मुद्दे पर भी कोई दो टूक बात कहकर नहीं गईं। परमाणु हर्जाने का सवाल भी गले की हड्डी बन गया है।

भारत की संसद के कानून और वियना की परमाणु एजेंसी के नियमों में भारी अंतर है। हिलेरी चाहती थीं कि भारत उन नियमों को मान ले और हर्जाने की शर्तो को नरम कर दे, पर उन्हें सफलता नहीं मिली। उन्होंने हमारे विदेश मंत्री के इस आग्रह को भी दरकिनार कर दिया कि भारत को परमाणु-निर्यात नियंत्रण के चारों संगठनों (एनएसजी, एमटीसीआर, आस्ट्रेलियन ग्रुप और वाजनार एरेंजमेंट) का सदस्य भी बनाया जाए। यदि भारत-अमेरिकी सौदे के दौरान दिए गए आश्वासन सही थे, तो फिर इस काम में कोई हिचक क्यों है? वैसे हिलेरी भारत इस बहाने आईं कि वे भारत के साथ सामरिक-संवाद करेंगी। क्या उन्होंने सामरिक संवाद किया? उन्होंने दिल्ली की पत्रकार-परिषद और चेन्नई के अपने भाषण में उपदेशों की झड़ी लगा दी कि भारत ये करे, भारत वो करे।

भारत को पता है कि उसे क्या करना है। असली प्रश्न यह है कि भारत जो कुछ करना चाहता है, क्या अमेरिकी सरकार उसे ठीक से समझती है? अमेरिका के उकसावे पर भारत चीन से क्यों भिड़े? सबसे पहले पाकिस्तान को ही लें। कोई भी अमेरिकी नेता जब भारत आता है, तो भारत की जय बोलता है और जब पाकिस्तान जाता है, तो पाकिस्तान की जय बोलता है। इससे बेहतर तो रुजवेल्ट, कैनेडी और निक्सन का जमाना था, जब मतभेद की लकीरें साफ-साफ खिंची हुई थीं। भारत गुटनिरपेक्ष था, पर सोवियत संघ के करीब था और पाकिस्तान अमेरिकी सैन्य-गुटों का सदस्य था और दक्षिण एशिया में अमेरिकी हितों का चौकीदार बना हुआ था। उस समय पाकिस्तान की मांसपेशियों पर अमेरिकी तेल-मालिश की बात समझ में आती थी, पर अब अमेरिका की मजबूरी क्या है? मगर, अमेरिका तो अब भी पाक को मक्खन लगाता है। यह सब तब है, जब ओसामा-कांड हो चुका है। अमेरिका की खुफिया एजेंसियों की रपटों में साफ-साफ कहा गया है कि पाक सरकार और फौज आतंकवाद की सबसे बड़ी संरक्षक है। ऐसे में भारत अमेरिका पर भरोसा करके चीन से कैसे भिड़ सकता है? यहीं आकर फई की गिरफ्तारी भी नाटक ही लगती है। यह काम अमेरिका ने पाकिस्तान को सीधा करने के लिए ही किया है और हमारे लिए इसका कोई महत्व नहीं हो सकता है।

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