The Uniqueness of America's Nationalism

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अ मेरिका का आर्थिक संकट टल गया है। अल्पकालिक कर्जो की सीमा बढ़ाने वाला ओबामा सरकार का विधेयक अमेरिकी कांग्रेस (संसद) के निचले सदन हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव में तो पहले ही पारित हो गया था, यह मंगलवार को उच्च सदन (सीनेट) में भी पारित हो गया है। दरअसल, यह मुद्दा आर्थिक से ज्यादा राजनीतिक था, इसलिए विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी इस मुद्दे पर ओबामा प्रशासन को केवल पटखनी देने पर ही आमादा थी। गौरतलब यह है कि सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत है, इसलिए उसने यह विधेयक पारित करने में ओबामा प्रशासन को नाकों चने चबवा दिए हैं। एक तथ्य और भी उल्लेखनीय है।

अमेरिका में एक तीसरी पार्टी भी है, जिसका नाम है ग्रांड ओल्ड पार्टी। इस पार्टी के पास जनाधार नाम की कोई चीज नहीं है, लेकिन इससे अमेरिका के परंपरावादी, यथास्थितिवादी और धनकुबेर जुड़े हुए हैं। इस पार्टी का काम केवल इतना है कि सत्ता चाहे डेमोक्रेटों की हो और चाहे रिपब्लिकन्स की, जो भी विपक्ष में होता है, उससे सांठ-गांठ करके यह पार्टी केवल सत्ता को परेशानियों में ही डालती है। अल्पकालीन कर्ज की सीमा बढ़ाने संबंधी विधेयक पर जो गतिरोध देखा गया, उसके पीछे भी ग्रांड ओल्ड पार्टी ही थी, पर अमेरिकी नागरिक राष्ट्रवादी हैं और राजनीतिक दल भी, इसलिए वहां सत्ता की राजनीति वैसी नहीं होती है, जैसी हमारे देश में होती है।

अब जबकि अमेरिका का आर्थिक संकट टल गया है, तो दुनिया के कम्युनिस्ट टाइप के उन बुद्धिजीवियों को घोर निराशा हुई होगी, जो मानकर चल रहे थे कि संकट नहीं टलेगा, जिससे अमेरिका एक बार फिर मंदी से जूझने लगेगा। यह तो सही है कि पूंजीवाद धीरे-धीरे विफल हो रहा है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था दुनिया के किसी भी देश में सभी नागरिकों का समान हित नहीं कर पाती। किसी भी पूंजीवादी देश में जाकर देखा जा सकता है कि वहां गरीबों और अमीरों के बीच आर्थिक खाई बहुत चौड़ी हो गई है। इस संबंध में यदि भारत का उदाहरण देना हो, तो असित सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट के मुताबिक देश के 76 फीसदी नागरिक 20 रुपए प्रतिदिन की आमदनी पर गुजारा करते हैं, जबकि देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है, जिसके एक समय के भोजन पर 15 सौ से लेकर 20 हजार से ज्यादा रुपए तक खर्च हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि हर चमचमाती ऊंची इमारत के बाहर जो निजी कंपनियों के सुरक्षा गार्ड खड़े होते हैं, उनका न्यूनतम वेतन 600 रुपए हो सकता है, तो अधिकतम पांच हजार। बारह घंटे की ड्यूटी के बदले पांच हजार से ज्यादा वेतन देने वाली निजी सुरक्षा कंपनी भारत में अभी तक तो एक भी नहीं है। इसके विपरीत, बहुत-से लोग ऐसे हैं, जिनका प्रतिदिन का वेतन लाखों में होता है। कहा जा सकता है कि जो योग्य हैं, उनका वेतन ज्यादा होगा ही, पर यह तर्क इसलिए स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि हर नागरिक को योग्यता विकसित करने का मौका देना व्यवस्था का ही काम है और पूंजीवादी व्यवस्था में योग्यता विकसित करने का मौका उसे ही मिलता है, जिसके पास पैसा होता है। पैसे वाले ज्यादा योग्यता पा जाते हैं।

इस विषय की गहराई में हम नहीं जाएंगे, क्योंकि यह विसंगति अलग से विचार-विमर्श का विषय है। हम कहना यह चाहते हैं कि चूंकि अमेरिका को पूंजीवाद का जनक माना जाता है, इसलिए यह आर्थिक विसंगति वहां भी बहुत ज्यादा है। जिस समय दुनियाभर के कम्युनिस्ट टाइप के बुद्धिजीवी अमेरिकी आर्थिक संकट के मद्देनजर चटखारे ले रहे थे कि अमेरिका अब फिर मंदी में फंस जाएगा, उसी समय यह खबर भी आई थी कि अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी एप्पल के पास अमेरिकी राजकोष से भी ज्यादा पैसा है। यह तथ्य सिद्ध करता है कि पूंजीवाद अमेरिका में भी विफल हो गया है। अल्पकालीक कर्जो की सीमा बढ़ाने के लिए अमेरिकी कांग्रेस ने जो विधेयक पारित कर दिया है, इससे अमेरिका के आर्थिक संकट का अस्थाई समाधान तो हो गया है, पर स्थाई समाधान इसी में है कि अमेरिकी प्रशासन पूंजीवाद से छुटकारा पाने की पहल करे। सच यह भी है कि अमेरिकी ऐसा कभी नहीं करेंगे।

लिहाजा, यह विषय भी विचार-विमर्श का नहीं है। यह तो अमेरिकी ही जानें कि उन्हें अपनी व्यवस्था बदलनी है या नहीं बदलनी है, लेकिन अमेरिकी संकट के समाधान में भारत जैसे देशों के लिए बहुत-से संकेत छिपे हुए हैं। अमेरिका में राजनीति तो होती है, लेकिन देश की कीमत पर नहीं। इसके विपरीत, भारत में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच लोकतंत्र के नाम पर जो राजनीति होती है, उसमें देश को भी प्राय: दांव पर लगा दिया जाता है। मसलन, जम्मू कश्मीर की धारा-370 और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर सभी राजनीतिक दलों को वोट की राजनीति से अलग हटकर विचार करना चाहिए, पर इस देश में ऐसा नहीं हो सकता। इसी का नतीजा है कि ये दोनों मुद्दे देश को निरंतर कमजोर करते जा रहे हैं।

ऐसा ही एक मुद्दा आरक्षण का भी है। यह सही है कि जो जातियां सदियों से शोषण का शिकार होती रही हैं, उन्हें देश की मुख्यधारा में लाने के लिए विशेष अवसर दिए जाने में कोई बुराई नहीं है, पर हमें यह भी तो देखना होगा कि जिन जातियों को विशेष अवसर दिए गए हैं, उनका उन्हें फायदा भी मिल रहा है या नहीं? सच्चई यह है कि पिछले साठ साल से निरंतर चले आ रहे आरक्षण के कारण दलितों और पिछड़ों में भी नए तरह के सवर्ण पनप गए हैं, जो अपने ही दबे-कुचले भाइयों का हक मारकर आरक्षण का लाभ ले रहे हैं। यदि कोई सर्वेक्षण हो, तो पता चलेगा कि दलितों और पिछड़ों की दो-तीन जातियां ही हैं, जो आरक्षण का निरंतर लाभ लेती चली आ रही हैं। इसके कारण असली दबे-कुचले नेपथ्य में चले गए हैं।

फिर, यदि हम उन जातियों के अंदर भी झांकें, जो छह दशकों से आरक्षण का लाभ लेती चली आ रही हैं, तो हम पाएंगे कि यह लाभ कुछ परिवारों मात्र तक सिमटकर रह गया है। यानी, एक परिवार आरक्षण का लाभ पीढ़ी-दर-पीढ़ी उठा रहा है, तो दूसरे परिवार को कोई फायदा नहीं हो रहा है। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमीलेयर का सिद्धांत प्रतिपादित किया था, पर हमारे राजनीतिज्ञों ने क्रीमीलेयर की आय सीमा डेढ़ लाख रुपए प्रतिवर्ष से बढ़ाकर साढ़े तीन लाख रुपए प्रतिवर्ष कर दी है। इसका मतलब यह है कि आरक्षण नीति पर हमें पुनर्विचार करना चाहिए, लेकिन चूंकि देश की जनता व राजनीतिज्ञों में राष्ट्रवाद का अभाव है, इसीलिए राष्ट्रहितों को दांव पर लगाकर आरक्षण की नीति जस की तस चल रही है। अमेरिकी अपने देश के हितों को कभी दांव पर नहीं लगाते। अत: हमने देखा कि अल्पकालीन कर्जो की समय सीमा बढ़ाने पर वहां विपक्ष और सत्तापक्ष के बीच राजनीति तो हुई, पर ज्यों ही उनकी समझ में आया कि यदि राजनीति चलती रही, तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी, तो उन्होंने कानून पारित कर दिया। अमेरिका तभी दुनिया का सिरमौर है।

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