कितना सुरक्षित हुआ विश्व समुदाय?
अपने किस्म के पहले नाभिकीय सुरक्षा सम्मेलन के समापन पर मेजबान अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि ‘अब अमेरिकी नागरिक और विश्व समुदाय पहले से ज्यादा सुरक्षित होंगे। हमने विश्व को सुरक्षित बनाने में वास्तविक प्रगति की है।’ निश्चय ही इस सम्मेलन ने यदि नाभिकीय आतंकवाद के खतरे से विश्व समुदाय को ज्यादा सुरक्षित बनाने की आधारभूमि तैयार कर ली है, तो इससे बडी उपलब्धि दुनिया के लिए इस समय कोई दूसरी हो ही नहीं सकती। सुरक्षा सम्मेलन आयोजित करने के पीछे ओबामा का घोषित उद्देश्य विश्व पर मंडरा रहे नाभिकीय आतंकवाद के खतरे को समाप्त करने का रास्ता निकालना ही था। उन्होंने अपने उद्घाटन भाषण में कहा कि आतंकवादी समूह नाभिकीय हथियारों तक पहुंच बनाना चाहते हैं और कभी उनके हाथों में यह आ गए, तो वे निश्चित रूप से इनका प्रयोग करेंगे।
आतंकियों ने नाभिकीय अस्त्र पाने के प्रयास कब-कब किए, इसका ब्यौरा विश्व समुदाय के पास नहीं है, पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नाभिकीय सामग्री उनके हाथों में पडने की आशंका पूरी दुनिया में व्याप्त है। स्वयं हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने भाषण में इसका जिक्र करते हुए इसे विश्व के साथ ही भारत के लिए भी विशेष खतरा बताया। कहने की जरूरत नहीं कि प्रधानमंत्री का इशारा पाकिस्तान की ओर ही था। सम्मेलन में पाक-नाभिकीय संस्थानों के असुरक्षित होने को लेकर सबसे ज्यादा चिंता थी। क्या इस सम्मेलन में ऐसी बाध्यकारी कार्य-योजनाएं स्वीकृत हुई हैं, जिनसे यह विश्वास पैदा हो सके कि अब आतंकियों के हाथों में नाभिकीय अस्त्र व सामग्रियां वाकई नहीं जा पाएंगी?
सम्मेलन के लिए दुनिया के 47 प्रमुख देशों के साथ अंतरराष्ट्रीय आणविक एजेंसी और यूरोपीय परिषद की भागीदारी इसके महत्व को साबित करने के लिए पर्याप्त है। ईरान, उत्तर कोरिया व इजरायल को छोडकर ऐसा कोई देश सम्मेलन में शिरकत करने से वंचित नहीं रहा, जिसके पास सैन्य-असैन्य नाभिकीय क्षमता है। पूरे सम्मेलन के दौरान मूल लक्ष्य को लेकर मतभेद का एक भी स्वर नहीं उभरा। इससे साबित होता है कि विश्व का सामूहिक मनोविज्ञान इसके लिए काम करने के पक्ष में है। सम्मेलन में सर्वसम्मति से दो दस्तावेज जारी हुए। एक घोषणा-पत्र तथा दूसरी कार्य-योजना। घोषणा-पत्र में ओबामा के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया गया है कि अगले चार वर्षों में विश्वभर में व्याप्त अबद्ध नाभिकीय सामग्रियों को पूरी तरह सुरक्षित कर दिया जाए, ताकि वे आतंकियों के हाथों में न पडे। एक वर्ष पहले प्राग में ओबामा ने यह प्रस्ताव रखा था। दूसरे में यह लक्ष्य कैसे पाएं, इसकी कार्ययोजना है। सम्मेलन के परिणामों को लेकर दुनिया के विश्लेषकों के बीच मतभेद हैं। एक पक्ष का मानना है कि इसमें लक्ष्यों को पाने के लिए किसी ठोस बाध्यकारी कदम की चर्चा नहीं है। पूरी बात सैद्धांतिक सहमति तक सीमित है।
नाभिकीय आतंकवाद के निषेध के लिए अतंरराष्ट्रीय संधि को मजबूत करने की बात तो इसमें है, पर सभी देशों द्वारा इसके अनुमोदन की अनिवार्यता का उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार इसमें नाभिकीय सामग्रियों की रक्षा संबंधी संधि की महत्ता की सिर्फ चर्चा है। अंतरराष्ट्रीय आणविक एजेंसी को पर्याप्त संसाधन, विशेषज्ञों व कार्यकुशल टीम प्रदान कर उसे मजबूत बनाने की बात में भी नया कुछ नहीं है। यहां तक कि सबसे ज्यादा असुरक्षित माने जाने वाले पाकिस्तान के नाभिकीय संस्थानों को सुरक्षित करने की तो इनमें चर्चा ही नहीं है। इन आलोचनाओं के आधार पर सम्मेलन को लेकर यकीनन नाउम्मीदी हो सकती है। वैसे भी, हमारे प्रधानमंत्री ने स्वयं वर्तमान नाभिकीय अप्रसार व्यवस्था को प्रसार रोकने में विफल करार दिया है, जबकि उसे मजबूत करने की बात कही गई, तो प्रधानमंत्री ने भी सम्मेलन के निर्णयों से संतोष व्यक्त किया है।
फिर भी, सम्मेलन को नाकामयाब कहना कतई उचित नहीं है। इसमें उपस्थित सभी देशों ने नाभिकीय खोज एवं चोरी-छिपे नाभिकीय तस्करी के निषेध के लिए सूचना का आदान-प्रदान करने के साथ मिलकर काम करने के प्रति वचनबद्धता दिखाई है। इस प्रकार विश्व स्तर पर एक नए ढांचे की शुरुआत हुई है। ठोस परिणति के रूप में विचार करें, तो यूक्रेन, मैक्सिको, कनाडा जैसे देशों ने उच्च संवर्धित यूरेनियम के परित्याग का इरादा व्यक्त किया। इन देशों का तर्क था कि यदि आतंकियों को संवर्धित यूरेनियम नहीं मिलेगा, तो उनके लिए नाभिकीय अस्त्रों का निर्माण कठिन हो जाएगा। इस दिशा में प्रगति भी हुई है। अमेरिका, कनाडा व मैक्सिको ने उच्च संवर्धित यूरेनियम को निम्न संवर्धित यूरेनियम-ईंधन में बदलने की बात कही है। इस मामले में अमेरिका एवं रूस की संधि का सबसे ज्यादा महत्व है। दोनों देशों ने 34 टन अस्त्र-निर्माण में उपयोग होने योग्य प्लूटोनियम को असैन्य ऊर्जा रिएक्टरों के जरिए बिजली पैदा करने में प्रयोग करने के लिए लंबे समय से रुका हुआ समझौता पूरा किया है। इसे हम सुरक्षित विश्व की दिशा में कदम नहीं, तो और क्या कहेंगे?
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सम्मेलन के केवल छह दिन पहले ही अमेरिका व रूस ने अपने नाभिकीय अस्त्रों में भारी कटौती का समझौता किया था। अमेरिका ने अपनी नाभिकीय सुरक्षा नीति में भविष्य में अस्त्रों का विकास न करने के साथ किसी गैर-नाभिकीय देश के विरुद्ध इनका उपयोग न करने का ऐलान भी किया था। यह सभी कदम वास्तव में इस सम्मेलन के लिए बेहतर माहौल और आधारभूमि बनाने में कामयाब हुए हैं। विश्व के नेताओं का नाभिकीय आतंकवाद से सुरक्षित विश्व के लिए एक ऐसी प्रणाली के निर्माण के समान इरादे से एक साथ खडे होना है, जो वर्तमान के लिए तो अनुकूल हो ही, भविष्य में भी इस लक्ष्य को कायम रखने में सक्षम हो, आधुनिक विश्व इतिहास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक मानी जाएगी। वास्तव में सम्मेलन का समापन किसी तरह महाविनाश के अस्त्रों या उपादानों को आतंकवादियों के हाथों में न पडने देने की वैश्विक वचनबद्धता के साथ हुआ है और इस समय यह मान लेने में हिचक नहीं है कि इसके परवर्ती कदमों के तौर पर घोषणाओं को अमल में लाने की दिशा में कदम भी अवश्य ही उठेंगे।
हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि बराक ओबामा के एजेंडे में नाभिकीय कूटनीति सबसे ऊपर है। उन्होंने पिछले वर्ष प्राग में नाभिकीय निरस्त्रीकरण संबंधी अपनी सोच से दुनिया को अवगत कराया था और उस दिशा में वे लगातार आगे बढ रहे हैं। उन्होंने वाशिंगटन-सम्मेलन के अंत में कहा है कि अमेरिका सारे लक्ष्यों को क्रियान्वित कराने की जिम्मेदारी नहीं ले सकता, क्योंकि यह सभी देशों की जिम्मेदारी है। वस्तुतः सभी देशों को अपना दायित्व निभाना होगा। अमेरिका द्वारा सबी देशों को इसके लिए मजबूर करने से नई समस्याएं खडी होंगी, इसलिए यह अच्छा होगा कि अमेरिका प्रेरक, साझेदार, सहायक और साथी की भूमिका के रूप में स्वयं को रखे।
–अवधेश कुमार
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